Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान--मुंशी प्रेमचंद


मगर अभी शायद उनके दुःख का प्याला भरा न था। जो कुछ कसर थी, वह लड़की और दामाद के सम्बन्ध-विच्छेद ने पूरी कर दी। साधारण हिन्दू बालिकाओं की तरह मीनाक्षी भी बेज़बान थी। बाप ने जिसके साथ ब्याह कर दिया, उसके साथ चली गयी; लेकिन स्त्री-पुरुष में प्रेम न था। दिग्विजयसिंह ऐयाश भी थे, शराबी भी। मीनाक्षी भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती थी। पुस्तकों और पत्रिकाओं से मन बहलाया करती थी। दिग्विजय की अवस्था तो तीस से अधिक न थी। पढ़ा-लिखा भी था; मगर बड़ा मग़रूर, अपनी कुल-प्रतिष्ठा की डींग मारनेवाला, स्वभाव का निर्दयी और कृपण। गाँव की नीच जाति की बहू-बेटियों पर डोरे डाला करता था। सोहबत भी नीचों की थी, जिनकी ख़ुशामदों ने उसे और भी ख़ुशामदपसन्द बना दिया था। मीनाक्षी ऐसे व्यक्ति का सम्मान दिल से न कर सकती थी। फिर पत्रों में स्त्रियों के अधिकारों की चर्चा पढ़-पढ़कर उसकी आँखें खुलने लगी थीं। वह ज़नाना क्लब में आने-जाने लगी। वहाँ कितनी ही शिक्षित ऊँचे कुल की महिलाएँ आती थीं। उनमें वोट और अधिकार और स्वाधीनता और नारी-जागृति की ख़ूब चर्चा होती थी, जैसे पुरुषों के विरुद्ध कोई षडयन्त्र रचा जा रहा हो। अधिकतर वही देवियाँ थीं जिनकी अपने पुरुषों से न पटती थी, जो नयी शिक्षा पाने के कारण पुरानी मयार्दाओं को तोड़ डालना चाहती थीं। कई युवतियाँ भी थीं, जो डिग्रियाँ ले चुकी थीं और विवाहित जीवन को आत्मसम्मान के लिए घातक समझकर नौकरियों की तलाश में थीं। उन्हीं में एक मिस सुलतान थीं, जो विलायत से बार-ऐट-ला होकर आयी थीं और यहाँ परदानशीन महिलाओं को क़ानूनी सलाह देने का व्यवसाय करती थीं। उन्हीं की सलाह से मीनाक्षी ने पति पर गुज़ारे का दावा किया। वह अब उसके घर में न रहना चाहती थी। गुज़ारे की मीनाक्षी को ज़रूरत न थी। मैके में वह बड़े आराम से रह सकती थी; मगर वह दिग्विजयसिंह के मुख में कालिख लगाकर यहाँ से जाना चाहती थी। दिग्विजयसिंह ने उस पर उलटा बदचलनी का आक्षेप लगाया। राय साहब ने इस कलह को शान्त करने की भरसक बहुत चेष्टा की; पर मीनाक्षी अब पति की सूरत भी नहीं देखना चाहती थी। यद्यपि दिग्विजयसिंह का दावा ख़ारिज हो गया और मीनाक्षी ने उस पर गुज़ारे की डिग्री पायी; मगर यह अपमान उसके जिगर में चुभता रहा। वह अलग एक कोठी में रहती थी, और समिष्टवादी आन्दोलन में प्रमुख भाग लेती थी, पर वह जलन शान्त न होती थी।

एक दिन वह क्रोध में आकर हंटर लिये दिग्विजयसिंह के बँगले पर पहुँची। शोहदे जमा थे और वेश्या का नाच हो रहा था। उसने रणचंडी की भाँति पिशाचों की इस चंडाल चौकड़ी में पहुँचकर तहलका मचा दिया। हंटर खा-खाकर लोग इधर-उधर भागने लगे। उसके तेज के सामने वह नीच शोहदे क्या टिकते; जब दिग्विजयसिंह अकेले रह गये, तो उसने उन पर सड़ासड़ हंटर जमाने शुरू किये और इतना मारा कि कुँवर साहब बेदम हो गये। वेश्या अभी तक कोने में दबकी खड़ी थी। अब उसका नम्बर आया। मीनाक्षी हंटर तानकर जमाना ही चाहती थी कि वेश्या उसके पैरों पर गिर पड़ी और रोकर बोली -- दुलहिनजी, आज आप मेरी जान बख़्श दें। मैं फिर कभी यहाँ न आऊँगी। मैं निरपराध हूँ।
मीनाक्षी ने उसकी ओर घृणा से देखकर कहा -- हाँ, तू निरपराध है। जानती है न, मैं कौन हूँ! चली जा। अब कभी यहाँ न आना। हम स्त्रियाँ भोग-विलास की चीज़ें हैं ही, तेरा कोई दोष नहीं!
वेश्या ने उसके चरणों पर सिर रखकर आवेश में कहा -- परमात्मा आपको सुखी रखे। जैसा आपका नाम सुनती थी, वैसा ही पाया।
'सुखी रहने से तुम्हारा क्या आशय है? '
'आप जो समझें महारानीजी! '
'नहीं, तुम बताओ। '
वेश्या के प्राण नखों में समा गये। कहाँ से कहाँ आशीर्वाद देने चली। जान बच गयी थी, चुपके से अपनी राह लेनी चाहिए थी, दुआ देने की सनक सवार हुई। अब कैसे जान बचे। डरती-डरती बोली -- हुज़ूर का एक़बाल बढ़े, नाम बढ़े।
मीनाक्षी मुस्करायी -- हाँ, ठीक है।

वह आकर अपनी कार में बैठी, हाकिम-ज़िला के बँगले पर पहुँचकर इस कांड की सूचना दी और अपनी कोठी में चली आयी। तब से स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे के ख़ून के प्यासे थे। दिग्विजयसिंह रिवालवर लिये उसकी ताक में फिरा करते और वह भी अपनी रक्षा के लिए दो पहलवान ठाकुरों को अपने साथ लिये रहती थी। और राय साहब ने सुख का जो स्वर्ग बनाया था, उसे अपनी ज़िन्दगी से ही ध्वंस होते देख रहे थे। और अब संसार से निराश होकर उनकी आत्मा अन्तमुर्खी होती जाती थी। अब तक अभिलाषाओं से जीवन के लिए प्रेरणा मिलती रहती थी। उधर का रास्ता बन्द हो जाने पर उनका मन आप ही आप भक्ति की ओर झुका, जो अभिलाषाओं से कहीं बढ़कर सत्य था। जिस नयी जायदाद के आसरे क़रज़ लिये थे, वह जायदाद क़रज़ की पुरौती किये बिना ही हाथ से निकल गयी थी और वह बोझ सिर पर लदा हुआ था। मिनिस्टरी से ज़रूर अच्छी रक़म मिलती थी; मगर वह सारी की सारी उस मर्यादा का पालन करने में ही उड़ जाती थी और राय साहब को अपना राजसी ठाट निभाने के लिए वही असामियों पर इज़ाफ़ा और बेदख़ली और नज़राना करना और लेना पड़ता था, जिससे उन्हें घृणा थी। वह प्रजा को कष्ट न देना चाहते थे। उनकी दशा पर उन्हें दया आती थी; लेकिन अपनी ज़रूरतों से हैरान थे। मुश्किल यह थी कि उपासना और भक्ति में भी उन्हें शान्ति न मिलती थी। वह मोह को छोड़ना चाहते थे; पर मोह उन्हें न छोड़ता था और इस खींच-तान में उन्हें अपमान, ग्लानि और अशान्ति से छुटकारा न मिलता था। और जब आत्मा में शान्ति नहीं, तो देह कैसे स्वस्थ रहती? निरोग रहने का सब उपाय करने पर भी एक न एक बाधा गले पड़ी रहती थी। रसोई में सभी तरह के पकवान बनते थे; पर उनके लिए वही मूँग की दाल और फुलके थे। अपने और भाइयों को देखते थे जो उनसे भी ज़्यादा मक़रूज, अपमानित और शोकग्रस्त थे, जिनके भोग-विलास में, ठाट-बाट में किसी तरह की कमी न थी; मगर इस तरह की बेहयाई उनके बस में न थी। उनके मन के ऊँचे संस्कारों का ध्वंस न हुआ था। पर-पीड़ा, मक्कारी, निर्लज्जता और अत्याचार को वह ताल्लुक़ेदारी की शोभा और रोब-दाब का नाम देकर अपनी आत्मा को सन्तुष्ट न कर सकते थे, और यही उनकी सबसे बड़ी हार थी।

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